औंडि़हार, गाजीपुर से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर गोरखा नाम की न्यायपंचायत है। इसी में जो तेलियाना मौजा पड़ता है वहां हुणरही माता का करीब एक बिगहे में फैला हुआ विशाल परिसर आज भी सुरक्षित है, इसके चारों ओर कई एकड़ भूमि ऊसर है, आबादी थोड़ी है, हालांकि इसके बड़े इलाके में अब लोग खेती करते हैं। जो चित्र यहां दिया गया है, यह उसी हुणरही माता के मंदिर परिसर का है जहां रहने वाले 80 साल के पुजारी के कथनानुसार, उन्हें नहीं पता कि यह मंदिर परिसर कितना पुराना है। पुजारी और स्थानीय निवासियों के अनुसार, उनके दादे-परदादे के जमाने से माता की पिंडी यहां लोग देखते आ रहे हैं, साफ है कि यह स्थान सैकड़ों साल पुराना है। सवाल है कि क्या इस स्थान का कोई संबंध हूणों और स्कन्दगुप्त की टक्कर से हो सकता है? जैसा कि मैंने पिछले भाग में बताया था कि पूर्वांचल के लोकमन में आज भी हूणों का खौफ विविध किम्वदंतियों के रूप में जीवित है। यहां माताएं आज भी बच्चों को सुलाते वक्त कहती हैं कि बचवा सुत जा, नाहीं त हूणार आ जाई, अर्थात बेटा सो जा नहीं तो हूण आ जाएगा।
गोरखा-तेलियाना के इस हुणरही मंदिर के बारे में और लोक किम्वदंतियों पर अगर गौर करें तो इतिहास के अनेक रहस्यों से पर्दा उठ सकता है। स्थानीय लोग बताते हैं कि मंदिर परिसर में पीपल के पेड़ के नीचे जो पिंडी रखी है, वह असल में हूणों का अन्त करने वाली हूणरही (हूण-अरि) चौरा माई का स्थान है। स्कन्दगुप्त ने हूणों के विरुद्ध जो सैन्य व्यूह की रचना की थी इसमें यह स्थान कहीं ना कहीं केंद्र में अवश्य रहा होगा क्योंकि आज भी इस स्थान के प्रति लोकमन में असीम श्रद्धा का भाव भरा हुआ है। हो सकता है कि यहीं पर हर युद्ध के पहले रणक्षेत्र में परंपरा रूप में भवानी भगवती की प्रतिमा स्थापना का कार्य स्कन्दगुप्त ने पूरा किया हो। हूणारि यानी हूण-अरि अर्थात हूणों का वध करने के लिए प्रेरक भवानी भगवती महिषासुर मर्दिनी देवी दुर्गा की प्रतिमा की स्थापना के बिना तब भारत में युद्ध जीतने की कल्पना कठिन थी।
इस हुणरही मंदिर के बारे मे लोकमन में प्रचलित कहानी है कि एक गड़ेरिए की मासूम बच्ची को रात के अंधेरे में हुणार उठा ले गए और फाड़कर उसे खा गए, उसकी क्षत-विक्षत लाश के अवशेष जब देखे गए तब स्थानीय लोगों ने माता से हुणारों के विनाश के लिए यहीं पर प्रार्थना की, माता ने उनकी सुनी और हुणारों के विनाश के लिए सिंह पर सवार होकर अपनी तलवारों से सदा के लिए हुणारों का खात्मा करना तय कर लिया। भारत की लोकस्मृति में दर्ज यह कहानी और हूणों के अंत से जुड़ा यह हूणांतक स्थान रोमांचकारी है। लोककथाओं में माता जिस सिंह पर सवार होकर हूणों का वध करने निकली थीं, वह सिंह कोई और नहीं बल्कि वही नरव्याघ्र स्कन्दगुप्त था जिसका नाम कालांतर में इतिहास ने भूला दिया लेकिन जिस खौफ से उसने भारत को बचाया, वह खौफ लोगों के मन में अब तक बसा रह गया।
आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल उसकी वीरता का बखान करते हुए लिखते हैं, ‘Óमध्य एशिया से चींटियों की तरह असंख्य दल बांधकर जंगली और बर्बर हूण चीन से फ्रांस और यूनान तक समस्त भूभाग में फैल गए थे। डैन्यूब से वोल्गा तक तथा थ्यूरिंजिया और रोमन साम्राज्य तक इनकी लपलपाती हुई तलवारों ने अनगिनत मनुष्यों को चाट लिया था। हूणों के कंधे बड़े बड़े और नाक बैठी हुई थी, माथे का हिस्सा छोटा था और जैसे उनकी आंखें काली-काली उनके उठे सिरों में ही घुसी रहती थीं, क्रोध के समय पुतलियां इधर से उधर डोलने और नाचने लगती थीं, होठों के दोनों किनारों से पतली मूंछें खड़ी फड़कती थीं और मृत्यु को गेंद की तरह ठुकराते हुए ये बलशाली वेग से सम्पन्न घोड़ों पर सवार होकर समस्त जन-धन, नगर और देशों को रौंदते हुए ऐसे चलते थे जैसे कि खेतों को नष्टकर झुंड में चलने वाला असंख्य टिड्डी दलों का झनझन सुर में उड़ता समूह। इन हूणों के अत्याचारों से यूरोप कांप उठा, इनकी लगातार टक्कर और ठोकर से यूनान-मिस्र और रोम धरती के धूल में मिल गए। ऐसे विश्व को कंपा देने वाले प्रलयंकारी हूणों से समरांगण में लोहा लेने जब स्कन्दगुप्त अपने सैन्यबल के साथ दो दो हाथ करने उतर पड़ा तो जैसे बाजी ही पलट गई।’ ‘स्कन्दगुप्त के रणकौशल, बाहुबल और पराक्रम को देखकर हूणों की सेनाएं थर्रा उठीं, उसकी अद्वितीय वीरता देखकर जन-मन के भीतर पसरा डर जाता रहा, ऐसे महान सेनानी स्कन्दगुप्त को भारत का महान रक्षक, असल गोप्ता या महात्राता नहीं कहें तो फिर कौन है इतिहास में जिसे भारत-रक्षा-केसरी की उपाधि से नवाजा जाए।
आप सभी ने इस आलेख के प्रथम भाग में पढ़ा है कि जैसे ही हूणों ने तक्षशिला विश्वविद्यालय को नष्ट-भ्रष्ट किया वैसे ही तब के भारत के केंद्र पाटलीपुत्र में सैन्य हलचल बढ़ गई, दरबार में केवल एक ही चर्चा कि हूणों पर लगाम कैसे लगेगी, इनका संख्याबल कितना है, जो समूचे विश्व को रौंदते चले आ रहे हैं क्या उन्हें रोक पाने के लिए आवश्यक सैन्यबल और संसाधन हमारे पास हैं? और सबसे अहम सवाल ये कि आखिर युद्ध का नेतृत्व कौन करेगा क्योंकि सम्राट तो बुजुर्ग हो चले हैं, रणभूमि में उतरने की हालत में नहीं हैं और उनके तीन पुत्रों पुरुगुप्त, स्कन्दगुप्त और घटोत्कचगुप्त में उत्तराधिकार भी तय नहीं है। कहते हैं कि संकटों से घिर जाने के समय ही महानायक की पहचान होती है। स्कन्दगुप्त ने स्वयं ही आगे बढ़कर हूणों के विरुद्ध सैन्यबल का नेतृत्व करने का प्रस्ताव दिया और इस प्रकार राष्ट्र रक्षा के महायज्ञ में उसने अपने जीवन की आहुति देने जैसा बड़ा फैसला कर अपनी कर्तव्यपरायणता और सम्राट का वास्तविक उत्तराधिकारी होने की योग्यता सिद्ध कर दी।
इतिहास के स्रोत बताते हैं कि हूणों ने पहला धावा किसी पुष्यमित्र या व्यूढ़मित्र नामके व्यक्ति के नेतृत्व वाले सैन्यदल को आगे रखकर बोला था। इसमें यह रहस्य भी जाहिर होता है कि हूणों ने गुप्त साम्राज्य के केंद्र को कब्जे में लेने के लिए पहले देसी शक्तियों को साथ आने का लालच दिया था जिसमें से यह पुष्यमित्र नामक गद्दार हूणों से जाकर मिल गया। इस तथ्य की ओर प्रोफेसर आरसी मजूमदार ने संकेत किया है कि ‘पुष्यमित्र के जत्थे हूणों से संबंधित ही थे।Ó क्योंकि स्कन्दगुप्त की हूणों से अन्तिम टक्कर के बाद इनका भारतीय इतिहास में अता-पता तक नहीं चलता है।
इतिहास के स्रोतों के मुताबिक, हूणों के इन जत्थों से स्कन्दगुप्त की पहली टक्कर इतनी भयानक थी कि गुप्त साम्राज्य की बुनियाद तक हिल उठी। सैन्यबल हताश हो चले और एक बारगी ऐसा भी लगने लगा कि भारत का संपूर्ण राज्य सदा सदा के लिए हूणों को हस्तगत हो जाएगा। गुप्तचरों ने जब हूणों के सम्मुख स्कन्दगुप्त के सैन्यबल के पीछे हटने का समाचार अस्वस्थ सम्राट कुमार गुप्त को सुनाया तो पराजय की आहट में बिखरते साम्राज्य के स्वरूप की कल्पना कर उनका ह्रदय ही टूट गया, भीषण ह्रदयाघात से वह उसी समय मृत्यु को प्राप्त हो गए जबकि स्कन्दगुप्त रणभूमि में देश के शत्रुओं से जूझ रहा था। भितरी शिलालेख संकेत करता है कि अपने सैन्यबल को उत्साह से भरने के लिए इस महान सेनापति युवराज ने सैनिक शिविर के बिस्तर का ही त्याग कर सैनिकों के साथ ही भूमि पर सोना शुरू किया।
भितरी शिलालेख के अनुसार, ‘वचलितकुललक्ष्मीस्तम्भनायोद्यतेन क्षितितलशयनीये येन नीता त्रियामाÓ
अर्थात उस महापराक्रमी ने राज्य बचाने के लिए समरभूमि में सैनिकों के साथ पृथ्वी पर रात्रि व्यतीत की। उसके इस फैसले ने एक बार फिर से निराश सैन्यबल में देश के लिए सब कुछ कर गुजरने का ताव भर दिया।
आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल लिखते हैं कि-” जिस देश में सेनापति इस तरह से कड़ी जमीन पर रात गुजारकर तपस्या करते हैं भला उस देश को संसार में कौन समाप्त कर सकता है।” फिर जो हुआ उसे उस समय के संसार ने देखा कि हूणों के मुंड के मुंड भारत की धरती पर कट कटकर गिरने लगे। हूणों के राजा को रणभूमि में घसीटते हुए उसके सीने को चरण-पीठ बनाकर स्कन्दगुप्त ने समस्त हूण जाति के अत्याचारों पर मानों अपना बायां पैर स्थापित कर अंतिम विजय का डंका बजा दिया। भितरी शिलालेख में लिखा गया कि-…अमित्रांश्च जित्वा क्षितिप-चरणपीठे स्थापितो वामपाद:। हूणों को जीतकर उनके राजा के सीने को चरणपीठ बनाकर स्कन्दगुप्त ने उस पर अपना बायां पैर रख दिया।
लोकजीवन तब यह देखकर पुलकित हो उठा कि जिस गड़रिए की बेटी के पेट को फाड़कर उसकी अंतडिय़ां हूणों ने निकाल बाहर कीं, उन्हीं हूणों के राजा को उन्हीं आम लोगों के सम्मुख भारत के महानायक ने घसीटते हुए उनके पैरों के तले ला खड़ा किया। बच्चों और महिलाओं के साथ हूणों के बर्बर बर्ताव को देखकर ही स्कन्दगुप्त ने तब हूणों के समूल विनाश का निर्णय ले लिया था। पहले तो उसने आर्तस्वर में दया की भीख मांगने वाले हूणों को वापस मध्य एशिया लौट जाने का मार्ग देने का निर्णय लिया था, कितने ही वापस लौट भी गए और कितने ही हूणों को उसने हिंसक स्वभाव छोड़कर शांतचित्त सहिष्णु होकर रहने की शर्त पर क्षमादान भी दिया किन्तु हूणों के दुश्चरित्र और धूर्त-धोखे वाले बर्बर स्वभाव के कारण अंत में उसे यही फैसला करना पड़ा कि समरभूमि में क्षमादान और दयादान से काम नहीं चलेगा, और अगर कोई उपाय कारगर होगा तो केवल हूणांतक हूणों का भीषण संहार ही होगा, एक ओर हूणों की गर्दनें होंगी और दूसरी औरबाहुबली की तलवार।
अनेक शिलालेख बताते हैं कि हूणों के बर्बर आतंक खासतौर पर निर्दोष बच्चों को मार डालने और युवतियों को मारकर भूनकर और जलाकर खा डालने तक वाली वीभत्स मनुष्य जाति के इस स्वरूप को देखकर उस महावीर के ह्रदय से हूणों के प्रति दया भावना और मानवता समाप्त हो गई। हूणों को बार-बार सर उठाते और भारत को ललकारते देखकर स्कन्दगुप्त के क्रोध का पारावार नहीं था, और तब समर भूमि में उसने ऐसा रौद्र रूप दिखाया कि हूणों का नामलेवा भी धरती पर मिलना मुश्किल हो गया। भितरी शिलालेख की यह पंक्ति उसके पराक्रम का जीता-जागता प्रमाण है- हुणैर्यस्य समागतस्य समरे दोभ्र्यां धरा कम्पिता भीमावर्त करस्य…। अर्थात समरभूमि में स्कन्दगुप्त का रौद्र रूप देखकर बर्बर हूणों की बर्बरता तक कांप उठी।
इतिहास के स्रोत बताते हैं कि तब चीन के सम्राट ने राजदूत के द्वारा पाटलीपुत्र में संदेश भेजकर हूणों के विरुद्ध इस महान पराक्रम के लिए स्कन्दगुप्त को असंख्य शुभकामनाएं प्रेषित कीं। चीन जैसे देश के लिए इस बात से बढ़कर क्या खुशी हो सकती थी कि जिन हूणों की बाढ़ में यूनान-रोम और मिस्र की सभ्यताएं बह गईं और वह चीन भी विराट दीवाल का बांध बना लेने के बावजूद उनकी बर्बरता पर प्रभावी लगाम लगा पाने में नाकाम था, उन्हें भारत के गुप्तवंशैकवीर स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ने धरती से समूल उखाड़ डालने का संकल्प पूरा कर दिखाया।
महापराक्रमी स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य यहीं पर नहीं रुके। हूणों के राजा के मारे जाने के बाद उसकी शेष शक्ति के उन्मूलन का व्यापक अभियान उन्होंने हाथ में लिया। कई कई रातें अश्व पर सवार होकर अपने सैन्यबलों केसाथ उसने हूणों की भागती सेना को खदेड़ते हुए बिताईं। पश्चिमोत्तर में पेशावर पार तक पीछा किया तो हूणों के भागते और रास्ता भटके सैनिकों का सफाया गुजरात तक में हुआ। बीन बीनकर उसने हूणों के आतंक से भारत की धरती को मुक्त कराया। संपूर्ण उत्तर भारत ने मानो राहत की सांस ली। बच्चे-महिलाएं और बुजुर्गों ने उस महान व्यक्तित्व को हूणों पर असम्भव लगने वाली विजय प्राप्त कर वापस लौटते अपनी आंखों से देखा तो उसकी जय जयकार से आसमान गूंजा दिया, उसे देख देखकर झूम झूमकर असंख्य पुष्प मालाओं से गले लगा लिया।
इतिहास में अत्यंत प्रसिद्ध गुजरात के गिरनार पर्वत पर अंकित जूनागढ़ अभिलेख स्कंदगुप्त के गुजरात अभियान पर प्रकाश डालता है, जिसमें लिखा है कि – नरपति भुजंगानाम मानदर्पोत्फणानाम प्रतिकृति गरुड़ानां निर्विषी चाव कर्ता…. अर्थात जैसे गरुड़ भुजंग आदि सर्पों का रक्तपान कर जाते हैं उसी तरह से उस महापराक्रमी ने हूण नामक विषैले सर्पों के आतंक और अहंकार रूपी फन को सदा के लिए कुचल दिया।
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